Wednesday, October 19, 2011

दिल में जगाकर प्यास कहां तुम चले गए...



गजल सम्राट जगजीत सिंह का छत्तीसगढ़ से गहरा लगाव रहा। पिछले महीने चक्रधर समारोह में उनकी गजलें उनके जीवन काल की आखिरी प्रस्तुति थीं। उनके साथ गुजारे पलों को एक चाहने वाले ने कुछ यूं कलमबद्ध किया...

शाइरी भी उसके पहले थी अशआर भी उसके पहले
गज़ल भी उसके पहले थी फनकार भी उसके पहले
शेरो सुखन के दीवाने पहले भी थे दुनिया में
सजते थे मौसीक़ी के बाजार भी उसके पहले

लेकिन थी फ़क़त चन्द लोगों की खातिर ये शाइरी
रिवायत के दायरों में ही उलझी थी ये गज़ल
जम्हूर को पता न था कि गज़ल है क्या
फ़क़त अदब की बज्मों में सिमटी थी ये गज़ल

तभी लेके आया वो एक रूहानी सी आवाज़
सुनके जिसे काइनात भी रुक सी गयी एक पल को
उसने सिखाया दुनिया को कि गज़ल है क्या

जहान के हर गोशे में पंहुचा दिया गज़ल को
अशआर में मिलाकर मखमली अंदाज़
आवाज़ की ख़ुशबू से महका दिया गज़ल को

ये बेमिसाल फऩकार ये तलफ्फुज का बादशाह
मुझको तो मौसीक़ी का ताजमहल लगता है
जगजीत ने गज़ल को अपना लिया है यूँ
उसके मुंह से निकला हर लफ्ज़ गज़ल लगता है

जगजीत तेरे बिना गज़ल में कोई मज़ा नहीं
लफ्ज़ तो हैं बोहोत मगर काफिया नहीं

Friday, October 14, 2011

सिंहासन खाली करो,...कि जनता आती है

भ्रष्ट देश की सूची में श्रेष्ठ स्थान पाने वाले देश का सबसे शक्तिशाली पदाधिकारी हर मंच से कहे कि ‘‘मैं ईमानदार हू, मेरी सम्पत्ति की जाच करा ली जाए, लेकिन मैं मजबूर हू। इस तरह से देश का मुखिया का कहना कि मैं ईमानदार हू तो फिर आजादी के बाद आज तक सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार इनके नेतृत्व में क्यों चल रही है? मेरी सम्पत्ति की जाच कराओ का क्या मतलब निकाला जाए? क्या देश में ऐसा कोई प्रभावी कानून है जो किसी राजनेता की सम्पत्ति को जाच कर सके। ईमानदारी कभी मजबूर नहीं होती। ईमानदारी एक ऐसा गुण है जिसके प्रखर ताप से भ्रष्ट विचार व भ्रष्ट कृत्य आग के पास आने पर कागज की तरह सिकुड़ कर जल जाता है। फिर उसका अस्तित्व हमेशा के लिए मिट जाता है। हमारे राष्ट्र में नेतृत्व करने वाले कुछ विशेष गुणों से सुसज्जित रहते हैं उन्हें लच्छेदार भाषण देने की कला में माहिर होना चाहिए, उन्हें जनमत की नब्ज को टटोलते आना चाहिए। वक्त का तकाजा क्या कहता है इसका अनुभव होना चाहिए। हमारे राजनेता जनता की सेवा के लिए नहीं बल्कि अपनी शक्ति व प्रभुता को निरंकुश सामथ्र्य देने के लिए कुर्सी पर बैठते हैं। सारे नेताओं को देश की चिन्ता के बजाय एका करते तब ही मेजें थपथपाते देखा जाता है जबकि इनके वेतन भत्ते और सुविधायं बढ़ाने का प्रस्ताव संसद में रखा जाये। शायद ही कभी इसके अलावा देशहित के और किसी मुद्दे पर या ऐसे अवसर आने पर इन्होंने एक ही सुर अलापा हो यह हमारे देश के राजनेताओं की कथाकथित नेकनियती का परिचायक है। राजनेता तब तक किसी प्रस्ताव को कानून नहीं बनने देते जब तक उस कानून से उनका निजी स्वार्थ न सध जाए। प्रस्ताव का मसौदा ऐसे तैयार किया जाता है कि देखने में लगे कि यह जनता की भलाई के लिए बना हो किन्तु वास्तव में जमीन पर उसकी हकीकत कुछ और ही होती है यहां तक कि राजनेता अपनी विकास निधि से भी खिलवाड़ करने में बाज नहीं आते।

अण्णा के रूप में जनता को मिला एक ऐसा ही विचार जो राजनेताओं को आईना दिखाकर एक कड़ा संदेश देता है कि जिस जनता ने इन्हें शक्तिशाली बनाया है उस जनता के प्रति राजनेताओं की मानसिकता कैसी है और इसे बदलने का अभी समय हैं नहीं तो कहीं माननीय नेतागण कहीं देर न हो जाए। पर हमारे देश के नेता ऐसे हैं कि बाज ही नहीं आते। बस उनका उद्देश्य यही होता है कि जनता को ऐसी सुविधा मुहैया कराने का ढोंग करना जिससे जनता को लाभ होता तो दिखाई पड़े लेकिन वास्तव में यह हमारे देश की जनता का दुर्भाग्य ही है कि उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के बजाय आश्रित और अनुचर बनाने की कुचेष्टाओं को समझ ही नहीं पा रहे। नेता हमेशा यह चाहते हैं कि जनता उनके फेंके तथाकथित विकास करने वाले निवालों के लिए सदैव पंच वर्षीय योजनाओं के कर्ताधर्ताओं से मिलने वाली राहत की बाट जोहता रहे, जनता के इन तथाकथित शक्तिशाली सामंतों की राह पर मानव श्रृंखला बना कर उनकी झूठी जय घोष लगाता रहे और बदले में उसे मिले आश्वासनों के स्वप्न में सुलाया जाता रहे। कौन कहता है सामंतों का युगान्त हो गया? कौन कहता है गुलामी का शासन खत्म हो का गया? सामंत आज के राजनेता हैं, और कर्मचारी अधिकारी जो ईमानदारी से काम कर रहा है वह उस गुलाम की तरह है जो प्राचीनकाल में बनने वाली विलासी महलों और हवेलियों के स्तम्भों में नक्काशी करता कारीगर। हमारा देश तर्क-कुतर्कों का देश है, भीड़ को हांकने वाले लालभुज्क्कड़ों का देश है, क्या सचमुच भारत में प्रजातंत्र है, बिल्कुल नहीं लगता!

एक चैराहे पर तीन लोगों के हाथ में झाड़ू दे दी जाये तो वे चैराहे को झाड़ने के बजाए इस बहस में लग जायेगें कि कैसी झाड़ू है? किधर से शुरू करें? हवा कैसी बह रही है? हवा ऐसे नहीं ऐसे चलनी थी? समय ठीक नही है? चैराहे का लोकेशन कैसा होना चाहिए था? किसका मुह किस ओर रहेगा? कितना झुकेगें तब झड़ पायेगा? वगैरह-वगैरह...। अब विचारने से चैराहा झड़ेगा, या झाड़ू उठा कर खर्र-खर्र बुहरने से हमारे देश के नेता हमें अपने सुसभ्य संसदीय संस्कारों से इसी तरह के कुतर्क करना जनसामान्य को भी सिखा रहे हैं।

देश को सदैव ही साफ दिमाग और मैलेे हाथों की जरूरत रहा करती है न कि तर्क-कुतर्कों की। और कोई भी अच्छा काम कभी भी स्थायी नहीं होता, सदैव ही उसमें नवीन प्रयासों की आवश्कता होती है जैसे दीपक को जलते रखने के लिए घी अथवा तले की। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक होगा कि संविधान से छेड़छाड़ की दुहाई देने वाले यह भी समझ लें कि डा बाबा साहब यदि यह जानते कि उनके बनाये संविधान के संरक्षक पशुओं का चारा खा जायेंगे और जनता के चुने प्रतिनिधि स्विस बैंको में काला धन जमा करने के परम उद्देश्य से ही कुर्सी की शोभा बढ़ायेंगे तो अवश्य ही ऐसा कानून संविधान की किसी धारा में जोड़ा जाता कि आज बयालीस सालों से लटका लोकपाल लाने के लिए जनता सड़क पर नहीं आती और संसद भवन की इमारत से तथाकथित माननीय यह कहने की धृष्टता न करते कि रामलीला मैदान जैसी भीड़ तो कोई भी राजनेता जुटा सकता है। यह समझने की बात है कि इन राजनेताओं को आज तक यही समझ नहीं आ पाया कि राजनेताओं द्वारा जुटाई भीड़ और ईमानदार समाजसेवी द्वारा जुटाई भीड़ में क्या फर्क है। यहां यह तथ्य जोड़ना और प्रासंगिक होगा कि इन राजनेताओं की समझ के अलावा प्रधानमंत्री जी ने लालकिले से यह तक कह दिया कि अनशन समस्या का कोई हल नहीं। और इस कथन के तीसरे दिन से ही अनशन के महत्व को न सिर्फ देश वासियों ने पहचाना बल्कि बयालीस साल जंग खा रहे बिल को भी देश के बच्चे-बच्चे ने पहचाना। सच तो यह है कि लालकिले का भाषण महज औपचारिक हुआ करता है जो सिर्फ अखबारों के संपादकीय स्तंभों में विष्लेशण का विषय हुआ करता है या फिर विपक्षी सदस्यों की आलोचनात्मक जुगाली। आम आदमी उस भाषण का कोई सीधा मतलब निकाल ही नहीं सकता चूंकि वह भाषण होता ही ऐसा है।

जनता के इस आन्दोलन को सतही लेने वाले राजनेताओं को यह भी समझना चाहिए कि आज के दिन तक जब विश्व के अनेक देशों में हिंसात्मक क्रांति हो रही हैं तब बुद्ध और गांधी के इस मुल्क में अहिंसक क्रांति ने प्रजातंत्र को अधिक मजबूत किया है। क्रांति के इसी तरीके पर अल्बर्ट आंइस्टाईन ने दशकों पूर्व कहा था कि ‘‘आने वाली पीढ़ियां यह विश्वास नहीं करेंगी कि इस धरती पर एक हाड़-मास का पुतला ऐसा भी था जिसने इस तरह की क्रांति की।’’ इस महा कथन के पीछे बड़ी बात यह थी कि क्रांति का तरीका पूर्णतः मानवतावादी व पीढ़ियों को अक्षुण्ण रखने वाला था। अल्बर्ट आंइस्टाईन का यह महा कथन गांधी के आंदोलन के तरीके को प्रयोग के तौर पर बड़ा अनूठा सिद्ध ठहराता है।

अण्णा की क्रांति भारत के लिए गर्व का विषय है जिसमें अहिंसा को हथियार बना कर जनता ने संसद में बैठे शक्तिशाली कापुरूषों के कानों में जाकर दहाड़ लगाई है कि तुम अब चेतो और नेक नीयत से ऐसे कानून बनाओ जो सच्चे अर्थों में जनता की भलाई कर सकें। मुझे पिछले कुछ सालों में देश में निर्वाचन प्रक्रियाओं में भाग लेने वाले किन्नर वर्ग की भारी जीत का मतलब समझ नहीं आ रहा था लेकिन अन्ना के आंदोलन से यह स्पष्ट हो गया है कि हमारे देश की जनता नेता समुदाय को इस ईश्वर द्वारा पुरूषत्व एवं मातृत्व की मंझधार में रखे गये समुदाय से भी तुच्छ समझती है। राजनेता तो बड़े चतुर होते हैं लेकिन उन्हें यह बात तब भी समझ में नहीं आई थी और न तो अन्ना के आंदोलन से समझ में आ रही थी। जब अन्ना के साथ जनता की हुंकार को नेता अनसुना न कर सके तब कुछ ही सही लोगों को लाज आई और अन्ना के सुर में सुर मिलाने का शायद ढोंग ही कर रहे हों आकर सुर में सुर मिलाने का प्रयास किया। क्या यह नेतागण वास्तव में हमारे दुख दर्द दूर कर सकेंगे लगता तो बिल्कुल भी नहीं।

हो सकता है कि अन्ना का तरीका गलत हो, हो सकता है कि उन्होंने तथाकथित रूप से संसद की सर्वोच्चता को ललकारा हो, हो सकता है कि उन्होंने सरकार को ब्लेकमेल किया हो किन्तु क्या यह साबुत रूप से नेता अपनी आंखों से भी नहीं देख सकते कि जनता सिर्फ आह्वान पर ही उमड़ रही है और तुम्हें निर्बल निरूपाय होने के बावजूद सड़कों पर खम ठोंककर ललकार रही है। जनता का हमारे राजनेताओं को यह संदेश साफ है कि तुम वह राह मत देखो कि जनता तुम्हारे कानों में दहाड़ने की बजाए शीशा पिघला कर डाल दे... और तुम्हारी श्रवण शक्ति ही चली जाये। जनता के आन्दोलन को संविधान का वास्ता देकर दबाने से यह सिध्द नही होता कि संविधान प्रजातांत्रिक है बल्कि यह सिध्द होता है कि संविधान का इस्तेमाल कुछ तानाशाह अपने विशेषाधिकारों कों संरक्षण देने हेतु कर रहे हैं।


दोस्त गणेश कुमार पटेल के उदगार

Monday, August 22, 2011

छत्तीसगढ़ की सरजमी पर असहयोग की रिहर्सल


महात्मा गांधी को मिली आंदोलन की शुरुआती प्रेरणा



अंग्रेजों की चूलें हिला कर रख देने वाले महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलाया राष्ट्रव्यापी असहयोग आंदोलन की पूर्वपीठिका दरअसल कहीं और नहीं छत्तीसगढ़ की धरती पर रची गई। आंदोलन शुरू करने तत्कालिक वजहों में धमतरी का कंडेल नहर सत्याग्रह अंग्रेजों के लगान वूसली का विरोध प्रमुख कारण था। आजादी के आंदोलन के इस अहम पहलू से कम लोग वाकिफ हैं कि दरअसल महात्मा गांधी को असहयोग आंदोलन की प्रेरणा और उसका रिहर्सल धमतरी के कंडेल नहर सत्याग्रह में देखने को मिला था। अंग्रेजों के जुल्म और जोर-दबरदस्ती का लोगों ने मुंहतोड़ जवाब दिया। हालांकि इस ऐतिहासिक तथ्य को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जोरशोर से उठाते रहें हैं। इतिहासकारों ने दस्तावेजी साक्ष्य के आधार पर इसका गाहे-बगाहे उल्लेख किया है।
बारिश में पानी चोरी का आरोप
जुलाई १९२० में लगान के अंग्रेजी फरमान का झूठ असानी से पकड़ा जा सकता है। सावन के महीने में जब घनघोर बारिश से खेत लबालब थे उस वक्त अंग्रेज अफसरों ने किसानों पर नहर से पानी चोरी का आरोप मढ़ा। यह ग्रामीणों को इतना नागवार गुजरा कि लोग काम छोड़कर सड़क पर उतर आए। दमन के जोर से किसानों के जानवर और घरों का सामान तक की नीलामी शुरू कर दी। अंग्रजों को असहयोग की ऐसी शुरुआती मिसाल कहां मिलेगी कि सार्वजनिक हाट बाजार में निलामी के लिए पशुओं का कोई खरीदार नहीं मिला। मजबूर होकर अंग्रेजों को झुकना पड़ा। इतिहास में यह घटना आजादी के आंदोलन की तत्कालीन मिसाल साबित हुई। यह आंदोलन स्वतंत्रता सेनानी छोटे लाल श्रीवास्तव और दुर्गा शर्मा के नेतृत्व में चरम तक पहुंचा।
गांधीजी खिंचे चले आए
कंडेल सत्याग्रह की ख्याति इतनी कि गांधीजी यहां खिंचे चले आए। उन्हें छत्तीसगढ़ के गांधी कहे जाने वाले पं. सुंदरलाल शर्मा लेकर आए थे। गांधीजी के हस्तक्षेप के बाद किसानों का लगान माफ कर दिया गया। पूर्व सांसद केयूर भूषण को कंडेल सत्याग्रह अध्येता हैं। उन्होंने इससे जुड़े कई संस्मरण लिखे हैं। उनके अलावा इतिहासकार डा. रमेंद्रनाथ मिश्रा भी इस आंदोलन को असहयोग आंदोलन का रिहर्सल मानते हैं। उन्होंने बताया कि गांधीजी यहां से सीधे कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में हिस्सा लेने गए, जहां असहयोग आंदोलन से संबंधित कई प्रस्ताव पारित किए गए, जिस पर इस आंदोलन की छाया स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
ये भी हैं अनोखी मिसाल
- १९२२ को कोतवाली में १७ वर्दी वालों ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने अधिकारियों का यह फरमान मानने से इनकार दिया कि आंदोलन कर रहे स्वतंत्रता सेनानी और नेताओं पर खिलाफ डंडे बरसाएं। उन्होंने तत्काल कोतवाली में अपनी वर्दी जमा कर दी।
- १३३० से ३३ के बीच सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान रतनपुर में रजवाड़ों की एक बैठक आयोजित की गई। दस्तावेजी साक्ष्य बताते हैं कि अंग्रेजों के दबाव में इसमें धर्म के आधार पर लोगों को आंदोलन में शामिल नहीं होने के लिए डराने की कोशिश की। हालांकि इसमें अंग्रेजों की एक नहीं चली।

Saturday, August 6, 2011

पे्रमचंद की कहानियों में बचपन

प्रेमचंद जयंती पर दोस्त के लिए लिखे उदगार




कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है । हमारे समाज में जो भी घटित होता है, उसका प्रतिबिंब हमारे साहित्य में उजागर होता है । जहाॅं एक ओर साहित्य हमारे समाज की परिस्थितियों पर पैनी निगाह रखता है तो वहीं दूसरी ओर सच्चा साहित्य हमारी समस्याओं का हल खोजने की कोषिष भी करता है, और षायद इसलिए, सच्चे साहित्य की रचना करने वाले का दायित्व भी एक समाज सुधारक से बढ़कर हो जाता है । देष और समाज के प्रति समर्पित साहित्यकार ही सच्चे अर्थाें में कालजयी और प्रेरणास्पद साहित्य का सृजन कर सकता है । एक ऐसे ही प्रतिबद्ध देषभक्त साहित्यकार हैं - मुंषी प्रेमचंद, जिनका नाम न केवल हिन्दी साहित्य का पर्याय है, बल्कि पूरे विष्व साहित्य में भी उनकी गिनती श्रेष्ठतम रचनाकारों में होती है ।
31 जुलाई 1880 को जन्मे मुंषी पे्रमचंद का असली नाम धनपत राय था । पे्रमचंद जी ने अपने लेखन की षुरूआत उर्दू भाषा में नवाबराय के नाम से की । यह अजीब इत्तेफाक है कि जिनका असली नाम धनपत राय था, नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखा, वह पे्रमचंद के नाम से पूरी उम्र भर गरीबी और तंगहाली से जूझता रहा ।
आज मुंषी पे्रमचंद जी की 132 वीं जयंती है । 08 अक्टूबर 1936 को इस संसार से विदा लेने वाले महान लेखक प्रेमंचद और उनके साहित्य के योगदान का लेखा-जोखा आज तक हो रहा है, लेकिन उनके कृतित्व का समुचित मूल्यांकन अभी भी बाकी है। यूं तो पे्रमचंद जी ने समाज के हर पहलुओं पर और समाज के हर वर्ग के लिए लिखा है, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि उन्होंने बच्चों के लिए भी महान साहित्य-सृजन किया है, जबकि यह माना जाता है कि बच्चों के लिए साहित्य रचना सबसे कठिन कार्य होता है ।

हमें यह मानना होगा कि जो समाज अपने बच्चों की परवाह नहीं करता, वह अपना भविष्य कभी नहीं बना सकता । षायद इस तथ्य को प्रेमचंद बखूबी जानते थे, तभी तो उनकी लगभग 300 कहानियों में हमें बहुत सी कहानियां ऐसी मिलेंगी, जिनमें प्रेमचंद जी ने बचपन के विभिन्न रंगों को हमारे सामने पेष किया है ।

बच्चों का मन हमारी सच्ची पाठ्यपुस्तक हो सकता है । पे्रमचंद जी ने इस तथ्य को ध्यान में रखकर बाल मनोविज्ञान को बड़ी ही सूक्ष्मता और कुषलता के साथ अपनी कहानियों में अंकित किया है। इसी संदर्भ में उल्लेखनीय कहानी है- बड़े भाई साहब - इस कहानी में एक किषोर होता हुआ बड़ा भाई अपने चंचल और मनमौजी छोटे भाई को सफल और अनुषासित जीवन की सीख देने के लिए स्वयं त्याग और अनुषासन का कठोर जीवन अपनाता है ताकि उसका छोटा भाई आगे चलकर अच्छा इंसान बन सके । लेकिन वास्तविकता यह है कि स्वयं बड़े भाई साहब भी अपनी उम्र के बच्चों की तरह मौज-मस्ती करना चाहते हैं, उछल-कूद करना चाहते हैं, कनकौए उड़ाना चाहते हैं, बचपन का पूरा आनंद उठाना चाहते हैं, लेकिन कहीं छोटा भाई बिगड़ न जाए, इस आषंका से वे आत्म-संयमित रहने की भरसक कोषिष करते हैं। यह कहानी हमें बताती है कि बच्चों पर असमय बड़प्पन का बोझ लादने से वे उम्र से पहले ही बूढ़े हो जाते हैं। बच्चों को बच्चे ही रहने दिया जाय तो यही बच्चों के बचपन से सच्चा न्याय होगा।
पर बात यहीं नहीं रूकती । पे्रमचंद ने यह भी बताया है कि बच्चे स्वतः स्फूर्त भावना से वह काम भी कर सकते हैं, जो बड़े लोग अपने बुजुर्गा के लिए भी नहीं कर पाते । पे्रमचंद जी की सुप्रसिद्ध कहानी ईदगाह का हामिद, हिन्दी ही नहीं बल्कि समूचे विष्व साहित्य की कहानियों का अमर पात्र बन चुका है। चार-पाच साल का नन्हा हामिद, अपनी जेब में कुल तीन पैसे लेकर बड़ी हसरतों के साथ अपने दोस्तों के संग ईदगाह जाता है, पर न जाने कैसे उसकी कर्तव्य भावना स्वतः जाग्रत है और वह अपनी दादी के लिए चिमटा खरीद लाता है। उसे याद है कि हर रोज रोटियां सेंकते समय उसकी दादी के हाथ जल जाते हैं, यही संवेदना बच्चे हामिद को महान बनाती है ।

जब दादी उसे चिमटा खरीद लाने के लिए बुरी तरह डाॅटती है तो हामिद का बड़ा की मासूम जवाब मिलता है - तुम्हारी उंगलियां तवे से जल जातीं हैं न, इसलिए लाया हूं - षायद यह जवाब समूचे विष्व साहित्य का सबसे मासूम जवाब है । अब देखिए, दादी अमीना की आॅंखों से ममता के झर-झर आसू बह रहें हैं और हामिद के लिए मन से हजारों पवित्र दुआएं निकल रही है।
पे्रमचंद की एक और अमर कहानी है- बूढ़ी काकी । एक मषहूर अंग्रेजी साहित्यकार ने कहा है- द चाईल्ड ईज़ फादर आॅफ मैन । संभवतः यह उक्ति बूढ़ी काकी नामक कहानी पर पूरी खरी उतरती है ।
कहानी की मुख्य पात्र बूढ़ी काकी को पूरा परिवार तिरस्कृत करता है, यदि किसी को काकी से सहानुभूति और प्यार है तो केवल उनकी पोती लाड़ली को । इस कहानी में बच्ची लाड़ली के चरित्र के माध्यम से प्रेमचंद जी बताना चाहते हैं कि हमारे समाज में बुज़ुर्गांे की परवाह किसी को नहीं है, केवल बच्चे ही हैं जो अपने बुजुर्गाें को सम्मान और प्यार देते हैं और षायद, बुजु़र्गाें और बच्चों के प्रगाढ़ रिष्तों ने ही आज हमारे परिवार कंे स्वरूप को बचाकर रखा हुआ है, यानि हम कह सकते हैं कि बच्चे ही परिवार की धुरी हैं ।
मित्रों, प्रेमचंद जी की समग्र कहानियों को पढ़ने से हमें पता चलता है कि जिस प्रकार सूरदास जी ने अपने काव्य में श्रीकृष्ण के माध्यम से बाल्यकाल के विभिन्न चित्र खींचे हैं, उसी प्रकार प्रेमचंद जी ने मनुष्यता के सबसे पवित्र रूप- बचपन के विविध आयामोें को अपनी कई कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है । आज प्रेमचंद की कहानियां हमें सीख देतीं हैं कि हर बच्चे को उसका पूरा अधिकार मिले, किसी बच्चे से उसका बचपन न छीना जाए। याद रखें कि बच्चे ही हमारे देष और समाज का भविष्य हैं । खुषहाल बच्चों से ही खुषहाल देष बनाया जा सकता है, बचपन हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार है- पे्रमचंद जी के साहित्य के माध्यम से इससे बड़ा पैगाम और क्या हो सकता है ?
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सत्येन्द्र कुमार
सहायक प्राध्यापक (हिन्दी) स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिवनी (म.प्र.)

Sunday, July 31, 2011

यादों में तो है प्लूटो



76 साल तक सौरमंडल का सदस्य रहने के बाद प्लूटो से ग्रह का दर्जा छीन लिया गया। सौरमंडल का नौ ग्रहों वाला गणित ही बदल गया, लेकिन उन लोगों के मन से नहीं निकलेगा, जो अब तक सौरमंडल को नौ ग्रहों वाला मानते आए हैं। ज्योतिषियों ने इसे हल्के से लिया है। उनके नक्षत्रशास्त्र पर इसका असर नहीं होगा

प्लूटो अब ग्रह नहीं रह गया, दुनियाभर के जाने-माने खगोलविदों का लिया गया यह फैसला चर्चा का विषय है। किताबों और जनमानस में स्थापित मान्यता के अचानक बदल जाने का प्रभाव स्कूलों और कालेजों के विद्यार्थी पर भी दिखाई दिया। छात्रों में यह जानने की उत्सुकता बनी रही कि इस निर्णय को कैसे लागू किया जाएगा। शिक्षाविदों का मत है कि बचपन से प्लूटो को ग्रह के रूप में मानते आए लोगों के मन से यह जल्दी नहीं निकल सकेगा। आम लोग आठ ग्रह रह जाने के बाद ज्योतिष मान्यताओं पर असर जानने में लगे रहे।

खगोलविज्ञान के शोध छात्रों के लिए यह घटना महज भूमिका बदलने जैसी है। एक छात्र का कहना था कि साइंस जितना विकास करता है, पुरानी अवधारणाएं बदल रहती हैं। यही प्लेटो के साथ हुआ है। प्राग सम्मेलन में हिस्सा लेकर लौटे खागोलशास्त्री डा. एसके पांडे ने बताया कि प्लूटो के ग्रह का दर्जा नए मापदंडों के आधार पर खत्म किया गया है। बुध के आकार (2880 किमी) को मानक मानकर अब किसी आकाशीय पिंड के ग्रह होने और नहीं होने का निर्धारण किया जाएगा। इस लिहाज से प्लूटो का साइज बुध की तुलना में आधा है। अब इसकी गिनती सौर परिवार के प्लूटान समूह में होगी।

प्लूटो ग्रह नहीं रहा, यह बात सबसे पहले स्कूलों के पाठ्यक्रम को भी प्रभावित करेगी। शिक्षाविदों का मानना है कि साइंस में अंतरिक्ष विज्ञान की बेसिक पढ़ाई कक्षा चौथी से शुरू हो जाती है। चौथी से बारहवीं तक, साइंस की सभी किताबों में इस बात का जिक्र है कि प्लूटो नवां ग्रह है। प्राग के फैसले के बाद निश्चित रूप से पाठ्यक्रम बदलने होंगे, क्योंकि सौरमंडल में नौ ग्रह बताना अब सही नहीं रहेगा। पाठ्य पुस्तक निगम के एक आला ओहदेदार ने कहा कि निश्चित ही अंतरिक्ष से जुड़े पाठों में बदलाव आएगा, लेकिन अभी ये देखा जा रहा है कि प्राग में खगोलविदों द्वारा लिए गए फैसले को शेष विश्व अकादमिक रूप में किस नजरिए से देख रहा है।

ज्योतिषविदों का कहना है कि प्लूटो की मान्यता भारतीय नक्षत्रशास्त्र में नहीं है, इसलिए ज्योतिष की गणना पर इस निर्णय कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। पं. चंद्रशेखर दत्त त्रिपाठी के अनुसार जन्म पत्री आदि बनाने में सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र शनि, राहु और केतु ग्रहों को आधार बनाया जाता है। प्लूटो इनमें कहीं नहीं है।

तय हुआ प्लेनेट का स्टैंडर्ड
खगोलविदों ने बताया कि ब्रह्मांड में ग्रहों जैसे पिंडों की संख्या लगातार बढ़ रही है। ऐसी स्थिति में कौन सा पिंड ग्रह होगा और कौन सा नहीं, इसका निर्धारण करना मुश्किल होता जा रहा था। इस बार अंतरराष्ट्रीय खगोल संघ का सम्मेलन इसी समस्या पर केंद्रित रही। सम्मेलन के शुरू में नौ के स्थान पर 12 ग्रहों का प्रस्ताव लाया गया,  लेकिन इसके उत्तरार्द्ध में खगोल वैज्ञानिकों ने आम सहमति से ग्रहों के मानक तय कर डाले। यही वजह रही कि ग्रहों की संख्या बढऩे के बजाए एक कम हो गई।

प्लेनेट बनने के लिए क्या जरूरी
0 सौर परिवार का सदस्य होना आवश्यक है।
0 खगोलीय पिंड सूर्य की परिक्रमा करता हो।
0 अन्य ग्रहों की तरह गोलाकार और आकार में बड़ा हो
0 अन्य ग्रहों के साथ साम्य अवस्था हो।
0 परिक्रमा तल एक ही होना चाहिए।

प्लूटो का परिचय
सौर परिवार का सबसे दूर के सदस्य प्लूटो से सूर्य तारे के समान टिमटिमाता दिखाई देता है, अर्थात खगोलविदों की नजर में इस ग्रह पर पूरा अंधकार है। सूर्य से 5910 मिलियन किमी दूर होने से इसका वातावरण ठंडा है। प्लूटो का औसत तापमान शून्य से 230 डिग्री सेल्सियस कम है। प्लूटो पर सूर्य का प्रकाश पहुंचने में 328 मिनट लग जाते हैं। गौरतलब है कि पृथ्वी तक सूर्य का प्रकाश आने में करीब साढ़े आठ मिनट लगते हैं। यह सूर्य की एक परिक्रमा 350 वर्ष में लगता है। अपने अक्ष पर उसे चक्कर लगाने में छह दिन, नौ घंटे और 17 मिनट लगते हैं।
    
प्रतिनिधित्व
ब्रह्मांड के विस्तार को लेकर पैदा हुए सवालों पर चेक गणराज्य के प्राग सम्मेलन में रविवि की भी भागीदारी रही। इसमें एस्ट्रोफिजिक्स डा. पांडे ने विकासशील देशों में खगोलीय अध्ययन की समस्याओं पर पेपर प्रस्तुत किया। इसमें उन्होंने रविवि में खगोल भौतिक के अध्ययन को आधुनिक उपकरणों से लैस करने पर जोर दिया।

- क्षुद्रग्रहों केरान, शेरस और यूबी-313 को मिलाकर 12 ग्रहों वाले सौरमंडल का की बात लंबे समय से चल रही है। प्राग में इस माडल को खारिज कर खगोलविदों ने काफी पुराने विवाद पर विराम लगा दिया। ग्रहों संबंधी नए मानकों के निर्धारण के बाद प्लूटो के ग्रह का दर्जा भी समाप्त कर दिया गया। इसे ग्रहों नए सिरे से निर्धारण माना जाना चाहिए।

Saturday, July 30, 2011

मंदिरों का शहर


रायपुर शहर मंदिर और मठों की अपनी समृद्ध विरासत के लिए जाना जाता है। शहर ही नहीं जिले में विभिन्न राजाओं द्वारा आकर्षक व भव्य मंदिरों का निर्माण कराया गया। महामाया, दूधाधारी, राजिम स्थित राजीव लोचन, दामाखेड़ा का कबीर आश्रम आदि प्राचीन काल से ही भक्ति और आस्था का केंद्र बने हुए हैं।


दूधाधारी मठ
दूधाधारी मठ शहर का सबसे प्राचीन मंदिर है। मंदिर का निर्माण 17वीं शताब्दी में कलचुरी राजा जैत सिंह के समय हुआ था। वैष्णव संप्रदाय से संबंधित इस मंदिर में रामायण कालीन दृश्यों का शिल्पांकन बहुत आकर्षक तरीके से किया गया है। मंदिर में मराठा कालीन पेंटिंग आज भी मौजूद हैं। इसके नाम को लेकर किंवदंतियां प्रचलित है। राजस्थान के झींथरा नामक स्थल के संत गरीबदास ने यहां अपना डेरा जमाया था। उनकी परंपरा में संत बलभद्रदास हुए, जो भोजन में अनाज के स्थान पर केवल दूध लेते थे। उन्हें दूधाधारी महाराज संबोधित करते थे। बाद में इसी आधार पर मठ का नाम भी दूधाधारी प्रचलित हो गया। विद्वानों का कहना है कि मंदिर के निर्माण में सिरपुर से लाई गई पुरा सामग्री का प्रयोग किया गया है। भगवान रामचंद्र का मंदिर के अलावा यहां मारुति मंदिर भी दर्शनीय है।

महामाया मंदिर


महामाया मंदिर रायपुर का प्रमुख शक्तिपीठ के रूप में विख्यात है और आस्था के प्रमुख केंद्र है। नवरात्र पर्व में छत्तीसगढ़ समेत यहां कई राज्यों के भक्तों का मेला लगा रहता है। इस मंदिर का निर्माण भी कलचुरी शासकों ने कराया था। मान्यता है कि राजा मोरध्वज ने महिषासुरमर्दिनी की अष्टïभुजी प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा मंदिर में की थी। महामाया की प्रतिष्ठा कलचुरी शासकों की कुलदेवी के रूप में भी है। माना जाता है कि रतनपुर के कलचुरियों की एक शाखा जब रायपुर में स्थापित हुई तो उन्होंने अपनी कुलदेवी महामाया का भव्य मंदिर यहां भी बनवाया। यहां मंदिरों की श्रृंखला में मुख्य मंदिर के अलावा समलेश्वरी देवी, काल भैरव, बटुक भैरव और हनुमान मंदिर दर्शनीय हैं।

हटकेश्वर महादेव मंदिर
खारुन नदी के तट पर स्थित महादेव घाट धार्मिक आस्था का केंद्र तो है ही अब यह धार्मिक पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित होता जा रहा है। यहां का पुन्नी मेला और शिवरात्रि मेला की विशेष ख्याति है। दूर-दूर से लोग हटकेश्वर महादेव मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं। शिलालेखों से पता चलता है कि कलचुरी राजा हाजीराज ने हटकेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण कराया। यह मंदिर बाहर से आधुनिक प्रतीत होता है, लेकिन संपूर्ण संरचना को देखने से इसके उत्तर मध्यकालीन होने का अनुमान लगाया जाता है। बताते हैं, रायपुर के कलचुरी शासकों ने सबसे पहले इसी क्षेत्र को अपनी राजधानी बनाया था। महादेवघाट में ही विवेकानंद आश्रम के संस्थापक स्वामी आत्मानंद की समाधि भी स्थित है।

जैतूसाव मठ
पुरानीबस्ती क्षेत्र में स्थित जैतूसाव मठ में लक्ष्मीनारायण का दर्शनीय मंदिर है। इस मंदिर को वास्तु विन्यास के आधार बनाने का दावा किया जाता है। मंदिर के महंत लक्ष्मीनारायण दास ने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया, इसलिए यह स्वतंत्रता सेनानियों की गतिविधियों का भी प्रमुख केंद्र बना रहा। महात्मा गांधी समेत कई राष्टï्रीय नेताओं ने इस मंदिर में प्रवास किया।

मंदिरों का सुंदर समूह (राजिम)
राजधानी के दक्षिण-पूर्व में 48 किमी दूर राजिम महानदी, पैरी एवं सोंढ़ूर नदी के संगम पर स्थित है। इसे छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहा जाता है। इन दिनों इसकी ख्याति वार्षिक कुंभ के रूप में देशभर में फैल गई है। यहां कुलेश्वर महादेव, राजीव लोचन, और राजेश्वर मंदिरों का एक सुंदर समूह है। इनमें 11वीं शताब्दी का कुलेश्वर महादेव मंदिर 17 फीट ऊंची अष्टïभुजाकार जगती पर बनाया गया है। राजीव लोचन मंदिर में विष्णु की चतुर्भुजी प्रतिमा स्थापित है। राजीव लोचन मंदिर के पश्चिम में प्रकोष्ठ से बाहर तथा द्वार प्रकोष्ठ से 18 फीट हटकर पूर्वाभिमुख अवस्था में राजेश्वर मंदिर स्थित है। यह मंदिर भी दो फीट आठ इंच जगती पर बना हुआ है।

वल्लभाचार्य की जन्म स्थली चंपारण्य
राजिम से 10 किमी दूर चंपारण्य वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक वल्लभाचार्य की जन्म स्थली है। 20वीं शताब्दी के प्रथम दशक में वल्लभाचार्य के अनुयायियों ने उनकी स्मृति में एक मंदिर का निर्माण किया, जहां हर वर्ष जनवरी-फरवरी में मेला लगता है। पास के जंगल में राजिम के समान चंपकेश्वर महादेव का एक पुराना मंदिर है। आरंग में 11वीं शताब्दी भांडदेवल जैन मंदिर के अलावा बाघदेवल, महामाया और दंतेश्वरी मंदिर हैं।

कौशल्या की जन्म स्थली चंदखुरी
राजधानी से 17 किमी दूर स्थित चंदखुरी को भगवान राम की मां कौशल्या की जन्म स्थली माना जाता है। यहां के मंदिर की विशेषता है कि यह तालाब के बीच में स्थित है। पूजा-अर्चना के लिए मंदिर तक पहुंचने 2001 में पुल बनाया गया है। यहां पर पत्थरों से निर्मित एक शिव मंदिर है, जो 8वीं शताब्दी का है। यह वास्तु शिल्प का अद्भुत नमूना है।

ेकबीरपंथियों का तीर्थ दामाखेड़ा

रायपुर-बिलासपुर मार्ग पर सिमगा से 10 किमी दूर स्थित दामाखेड़ा कबीरपंथियों के तीर्थ के रूप में विख्यात है। इस पंथ के मानने वालों का यह छत्तीसगढ़ में सबसे बड़ा आस्था का केंद्र माना जाता है। यहां कबीर मठ की स्थापना 100 साल पहले पंथ के 12वें गुरु उग्रनाम साहब ने की थी। यहां के समाधि मंदिर में कबीर की जीवनी बड़े ही मन मोहक और कलात्मक ढंग से दीवारों पर नक्काशी कर उकेरा गया है। दामाखेड़ा में हर साल माघ शुक्ल दशमी से माघ पूर्णिमा तक संत समागम समारोह आयोजित किया जाता है। यहां दशहरा पर्व भी बड़े ही उल्लास के साथ मनाने की परंपरा है, क्योंकि इसी दिन दामाखेड़ा में वंश की स्थापना हुई थी।

Friday, July 22, 2011

स्कूल ने बदली बस्ती की फिजा



संस्कारों वाली शिक्षा के प्रसार से क्राइम रेट घटा. जनभागीदारी से हुई खस्ताहाल स्कूल की कायापलट. शासकीय स्कूल में इंग्लिश मीडियम की पढ़ाई

सट्टा, जुआ समेत तमाम छोटे-बड़े अपराधों के लिए कुख्यात शहर के त्रिमूर्तिनगर इलाके की तस्वीर यहां के एक सरकारी स्कूल ने बदलकर रख दी है। गरीब-मजदूरों के बच्चे अंग्रेजी में बोल सकते हैं। खुद शरारत छोड़ बच्चे अपने माता-पिता और पड़ोंसियों को अच्छे जीवन का पाठ पढ़ा रहे हैं। यही वजह है कि बस्ती के अपराध का ग्राफ 105 से घटकर 20 रह गया। पिछले एक डेढ़ साल में आए इस बदलाव को स्थानीय लोग कीचड़ में कमल खिलने की संज्ञा देते हैं।
इस सकारात्मक बदलाव के पीछे जनभागीदारी से किए गए इंतजाम की महत्वपूर्ण भूमिका है। उनके प्रयास से एक शिक्षक वाले प्राइमरी स्कूल को मीडिल तक विस्तार दिलाया। निजी तौर पर इंग्लिश मीडियम की पढ़ाई के लिए चार शिक्षक रखे गए। पढ़ाई के रोचक तरीकों से बच्चों की दर्ज संख्या बढऩे लगी। 15 बच्चों के पैरेंट्स ने प्राइवेट स्कूल छोड़कर यहां एडमिशन दिलाया। आज वहां कुल 166 बच्चे बढ़ते हैं। तीन-चार को छोड़कर सभी रिक्शा वाले या रोजी मजदूरी करने वालों के बच्चे हैं। क्वालिटी एजुकेशन के इंतजाम किए गए हैं। लाइब्रेरी में प्रेरणादायक पुस्तकों के अलावा मनोरंजक तरीके से पढ़ाई की सामग्री उपलब्ध कराई गई है।

स्कूल बैंग और किताबें
स्थानीय पार्षद जग्गू सिंह ठाकुर ने बताया कि त्रिमूर्ति नगर स्कूल की हालत देखकर काफी बुरा लगता था। इन बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले इसलिए वहां निजी तौर पर स्कूल खोलने के बजाए शासकीय स्कूल को गोद लिया गया। यहां बिना किसी शासकीय मदद के बच्चों की हर सुविधा का ध्यान रखा गया है। सीबीएसई पैटर्न में पढ़ाई संभव हो ऐसे इंतजाम किए गए। विशेष मौकों पर आगे कोशिश है कि इसे हाईस्कूल और हायर सेकंडरी का दर्जा दिलाया जाएगा।