Friday, October 14, 2011

सिंहासन खाली करो,...कि जनता आती है

भ्रष्ट देश की सूची में श्रेष्ठ स्थान पाने वाले देश का सबसे शक्तिशाली पदाधिकारी हर मंच से कहे कि ‘‘मैं ईमानदार हू, मेरी सम्पत्ति की जाच करा ली जाए, लेकिन मैं मजबूर हू। इस तरह से देश का मुखिया का कहना कि मैं ईमानदार हू तो फिर आजादी के बाद आज तक सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार इनके नेतृत्व में क्यों चल रही है? मेरी सम्पत्ति की जाच कराओ का क्या मतलब निकाला जाए? क्या देश में ऐसा कोई प्रभावी कानून है जो किसी राजनेता की सम्पत्ति को जाच कर सके। ईमानदारी कभी मजबूर नहीं होती। ईमानदारी एक ऐसा गुण है जिसके प्रखर ताप से भ्रष्ट विचार व भ्रष्ट कृत्य आग के पास आने पर कागज की तरह सिकुड़ कर जल जाता है। फिर उसका अस्तित्व हमेशा के लिए मिट जाता है। हमारे राष्ट्र में नेतृत्व करने वाले कुछ विशेष गुणों से सुसज्जित रहते हैं उन्हें लच्छेदार भाषण देने की कला में माहिर होना चाहिए, उन्हें जनमत की नब्ज को टटोलते आना चाहिए। वक्त का तकाजा क्या कहता है इसका अनुभव होना चाहिए। हमारे राजनेता जनता की सेवा के लिए नहीं बल्कि अपनी शक्ति व प्रभुता को निरंकुश सामथ्र्य देने के लिए कुर्सी पर बैठते हैं। सारे नेताओं को देश की चिन्ता के बजाय एका करते तब ही मेजें थपथपाते देखा जाता है जबकि इनके वेतन भत्ते और सुविधायं बढ़ाने का प्रस्ताव संसद में रखा जाये। शायद ही कभी इसके अलावा देशहित के और किसी मुद्दे पर या ऐसे अवसर आने पर इन्होंने एक ही सुर अलापा हो यह हमारे देश के राजनेताओं की कथाकथित नेकनियती का परिचायक है। राजनेता तब तक किसी प्रस्ताव को कानून नहीं बनने देते जब तक उस कानून से उनका निजी स्वार्थ न सध जाए। प्रस्ताव का मसौदा ऐसे तैयार किया जाता है कि देखने में लगे कि यह जनता की भलाई के लिए बना हो किन्तु वास्तव में जमीन पर उसकी हकीकत कुछ और ही होती है यहां तक कि राजनेता अपनी विकास निधि से भी खिलवाड़ करने में बाज नहीं आते।

अण्णा के रूप में जनता को मिला एक ऐसा ही विचार जो राजनेताओं को आईना दिखाकर एक कड़ा संदेश देता है कि जिस जनता ने इन्हें शक्तिशाली बनाया है उस जनता के प्रति राजनेताओं की मानसिकता कैसी है और इसे बदलने का अभी समय हैं नहीं तो कहीं माननीय नेतागण कहीं देर न हो जाए। पर हमारे देश के नेता ऐसे हैं कि बाज ही नहीं आते। बस उनका उद्देश्य यही होता है कि जनता को ऐसी सुविधा मुहैया कराने का ढोंग करना जिससे जनता को लाभ होता तो दिखाई पड़े लेकिन वास्तव में यह हमारे देश की जनता का दुर्भाग्य ही है कि उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के बजाय आश्रित और अनुचर बनाने की कुचेष्टाओं को समझ ही नहीं पा रहे। नेता हमेशा यह चाहते हैं कि जनता उनके फेंके तथाकथित विकास करने वाले निवालों के लिए सदैव पंच वर्षीय योजनाओं के कर्ताधर्ताओं से मिलने वाली राहत की बाट जोहता रहे, जनता के इन तथाकथित शक्तिशाली सामंतों की राह पर मानव श्रृंखला बना कर उनकी झूठी जय घोष लगाता रहे और बदले में उसे मिले आश्वासनों के स्वप्न में सुलाया जाता रहे। कौन कहता है सामंतों का युगान्त हो गया? कौन कहता है गुलामी का शासन खत्म हो का गया? सामंत आज के राजनेता हैं, और कर्मचारी अधिकारी जो ईमानदारी से काम कर रहा है वह उस गुलाम की तरह है जो प्राचीनकाल में बनने वाली विलासी महलों और हवेलियों के स्तम्भों में नक्काशी करता कारीगर। हमारा देश तर्क-कुतर्कों का देश है, भीड़ को हांकने वाले लालभुज्क्कड़ों का देश है, क्या सचमुच भारत में प्रजातंत्र है, बिल्कुल नहीं लगता!

एक चैराहे पर तीन लोगों के हाथ में झाड़ू दे दी जाये तो वे चैराहे को झाड़ने के बजाए इस बहस में लग जायेगें कि कैसी झाड़ू है? किधर से शुरू करें? हवा कैसी बह रही है? हवा ऐसे नहीं ऐसे चलनी थी? समय ठीक नही है? चैराहे का लोकेशन कैसा होना चाहिए था? किसका मुह किस ओर रहेगा? कितना झुकेगें तब झड़ पायेगा? वगैरह-वगैरह...। अब विचारने से चैराहा झड़ेगा, या झाड़ू उठा कर खर्र-खर्र बुहरने से हमारे देश के नेता हमें अपने सुसभ्य संसदीय संस्कारों से इसी तरह के कुतर्क करना जनसामान्य को भी सिखा रहे हैं।

देश को सदैव ही साफ दिमाग और मैलेे हाथों की जरूरत रहा करती है न कि तर्क-कुतर्कों की। और कोई भी अच्छा काम कभी भी स्थायी नहीं होता, सदैव ही उसमें नवीन प्रयासों की आवश्कता होती है जैसे दीपक को जलते रखने के लिए घी अथवा तले की। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक होगा कि संविधान से छेड़छाड़ की दुहाई देने वाले यह भी समझ लें कि डा बाबा साहब यदि यह जानते कि उनके बनाये संविधान के संरक्षक पशुओं का चारा खा जायेंगे और जनता के चुने प्रतिनिधि स्विस बैंको में काला धन जमा करने के परम उद्देश्य से ही कुर्सी की शोभा बढ़ायेंगे तो अवश्य ही ऐसा कानून संविधान की किसी धारा में जोड़ा जाता कि आज बयालीस सालों से लटका लोकपाल लाने के लिए जनता सड़क पर नहीं आती और संसद भवन की इमारत से तथाकथित माननीय यह कहने की धृष्टता न करते कि रामलीला मैदान जैसी भीड़ तो कोई भी राजनेता जुटा सकता है। यह समझने की बात है कि इन राजनेताओं को आज तक यही समझ नहीं आ पाया कि राजनेताओं द्वारा जुटाई भीड़ और ईमानदार समाजसेवी द्वारा जुटाई भीड़ में क्या फर्क है। यहां यह तथ्य जोड़ना और प्रासंगिक होगा कि इन राजनेताओं की समझ के अलावा प्रधानमंत्री जी ने लालकिले से यह तक कह दिया कि अनशन समस्या का कोई हल नहीं। और इस कथन के तीसरे दिन से ही अनशन के महत्व को न सिर्फ देश वासियों ने पहचाना बल्कि बयालीस साल जंग खा रहे बिल को भी देश के बच्चे-बच्चे ने पहचाना। सच तो यह है कि लालकिले का भाषण महज औपचारिक हुआ करता है जो सिर्फ अखबारों के संपादकीय स्तंभों में विष्लेशण का विषय हुआ करता है या फिर विपक्षी सदस्यों की आलोचनात्मक जुगाली। आम आदमी उस भाषण का कोई सीधा मतलब निकाल ही नहीं सकता चूंकि वह भाषण होता ही ऐसा है।

जनता के इस आन्दोलन को सतही लेने वाले राजनेताओं को यह भी समझना चाहिए कि आज के दिन तक जब विश्व के अनेक देशों में हिंसात्मक क्रांति हो रही हैं तब बुद्ध और गांधी के इस मुल्क में अहिंसक क्रांति ने प्रजातंत्र को अधिक मजबूत किया है। क्रांति के इसी तरीके पर अल्बर्ट आंइस्टाईन ने दशकों पूर्व कहा था कि ‘‘आने वाली पीढ़ियां यह विश्वास नहीं करेंगी कि इस धरती पर एक हाड़-मास का पुतला ऐसा भी था जिसने इस तरह की क्रांति की।’’ इस महा कथन के पीछे बड़ी बात यह थी कि क्रांति का तरीका पूर्णतः मानवतावादी व पीढ़ियों को अक्षुण्ण रखने वाला था। अल्बर्ट आंइस्टाईन का यह महा कथन गांधी के आंदोलन के तरीके को प्रयोग के तौर पर बड़ा अनूठा सिद्ध ठहराता है।

अण्णा की क्रांति भारत के लिए गर्व का विषय है जिसमें अहिंसा को हथियार बना कर जनता ने संसद में बैठे शक्तिशाली कापुरूषों के कानों में जाकर दहाड़ लगाई है कि तुम अब चेतो और नेक नीयत से ऐसे कानून बनाओ जो सच्चे अर्थों में जनता की भलाई कर सकें। मुझे पिछले कुछ सालों में देश में निर्वाचन प्रक्रियाओं में भाग लेने वाले किन्नर वर्ग की भारी जीत का मतलब समझ नहीं आ रहा था लेकिन अन्ना के आंदोलन से यह स्पष्ट हो गया है कि हमारे देश की जनता नेता समुदाय को इस ईश्वर द्वारा पुरूषत्व एवं मातृत्व की मंझधार में रखे गये समुदाय से भी तुच्छ समझती है। राजनेता तो बड़े चतुर होते हैं लेकिन उन्हें यह बात तब भी समझ में नहीं आई थी और न तो अन्ना के आंदोलन से समझ में आ रही थी। जब अन्ना के साथ जनता की हुंकार को नेता अनसुना न कर सके तब कुछ ही सही लोगों को लाज आई और अन्ना के सुर में सुर मिलाने का शायद ढोंग ही कर रहे हों आकर सुर में सुर मिलाने का प्रयास किया। क्या यह नेतागण वास्तव में हमारे दुख दर्द दूर कर सकेंगे लगता तो बिल्कुल भी नहीं।

हो सकता है कि अन्ना का तरीका गलत हो, हो सकता है कि उन्होंने तथाकथित रूप से संसद की सर्वोच्चता को ललकारा हो, हो सकता है कि उन्होंने सरकार को ब्लेकमेल किया हो किन्तु क्या यह साबुत रूप से नेता अपनी आंखों से भी नहीं देख सकते कि जनता सिर्फ आह्वान पर ही उमड़ रही है और तुम्हें निर्बल निरूपाय होने के बावजूद सड़कों पर खम ठोंककर ललकार रही है। जनता का हमारे राजनेताओं को यह संदेश साफ है कि तुम वह राह मत देखो कि जनता तुम्हारे कानों में दहाड़ने की बजाए शीशा पिघला कर डाल दे... और तुम्हारी श्रवण शक्ति ही चली जाये। जनता के आन्दोलन को संविधान का वास्ता देकर दबाने से यह सिध्द नही होता कि संविधान प्रजातांत्रिक है बल्कि यह सिध्द होता है कि संविधान का इस्तेमाल कुछ तानाशाह अपने विशेषाधिकारों कों संरक्षण देने हेतु कर रहे हैं।


दोस्त गणेश कुमार पटेल के उदगार

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